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क़ाफ़िरों की नमाज़ फिल्म का पोस्टमार्टम

क़ाफ़िरों की नमाज़ (फिल्म समीक्षा)

राम रमेश शर्मा द्वारा लिखित, निर्देशित फ़िल्म क़ाफ़िरों की नमाज़ शानदार कला सिनेमा (आर्ट मूवी) का नमूना है। फ़िल्म 2013 में तैयार हो गई थी। कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीतने के बावजूद भारतीय सेंसर बोर्ड ने इसे पास करने से इनकार कर दिया। इसके बाद फिल्ममेकर्स ने यह फिल्म यू-टयूब पर ही रिलीज कर दी। चार दिन पहले रिलीज हुयी इस फ़िल्म को अब तक 88,000 लोग देख चुके है।
  फ़िल्म का नाम भी काफी सोच-समझकर रखा गया है। फ़िल्म के टाइटल का मतलब एक पावन यात्राहै जो पूरी फ़िल्म देखने के बाद कहीं भीतर तक समा जाने को बेताब है। जीवन में कुछ सवाल हर आदमी के दिमाग में आते  हैं। तयशुदा जिंदगी के मुताबिक उनमें से कई सवाल ताउम्र कहीं छिपाकर रख लिए जाते हैं। व्यक्ति के चेतन मन पर जीवन की हर घटना किस तरह से असर डालती है, उसका हर आदमी का अपना अलग नज़रिया है।
फ़िल्म में मुख्य रूप से चार पात्र हैं: एक पागल फौजी जिसका अभी-अभी कोर्टमार्शल हुआ है। एक स्वघोषित टैगोर बना पत्रकार जो अब फौजी के जीवन पर किताब लिखना चाहता है। एक चायवाला जो हो रही बातचीत में अपना अलग राग आलापता रहता है, क्योंकि वह गायक बनना चाहता है। फ़िल्म का सबसे महत्वपूर्ण पात्र लेखक का कैमरामैन, जिसके माध्यम से पूरी कहानी को एक धागे में पिरोया गया है।
फ़िल्म के शुरुआती विजुअल्स में टोपी लगाए एक बच्चा दिखता है जो दीवार को एकटक देख रहा है। दीवार के दोनों हिस्सों पर समूह में कई छोटी-बड़ी घड़ियां सजी हैं। बच्चा दोनों ओर की घड़ियों को एकसाथ देखने की कोशिश कर रहा है लेकिन सफल नही हो पा रहा है। उसे लगता है कि दोनो तरफ  की घड़ियों में जिसे वह पहले देखता है, वह बाद में देखे जाने वाली घड़ी से तेज चल रही है। किसी के चीखने चिल्लाने की आवाज़ उसका ध्यान खींचती है। वह खिड़की से नीचे देखता है कुछ लोग एक फौजी को पीट रहे हैं। वह फौजी को कराहता देखता है पर कुछ कर नही पाता, क्योंकि घर के सामने वाली खिड़की से एक लड़की उसे शांत रहने का इशारा करती है। तभी एक पत्रकार आता है। लड़के को लगता है कि वह उस फौजी की मदद करेगा, लेकिन पत्रकार फौजी की दो-चार ऐंगल से फोटो खींचता है और चल देता है। कहानी अपने साथ कई अनसुलझे सवाल छोड़ देती है। जब तक आप इससे उबरते है तब तक फिल्म एक गंदे से होटल के कमरे में पहुंच जाती है। जहां राउंड टेबल पर आपका परिचय कुछ हद तक पागल फौजी और सनकी लेखक से हो जाता है। बातचीत का दौर शुरू होता है। फ़िल्म का सबसे संजीदा भाग यहीं से शुरू होता है। कैसे सामान्य से मुद्दों पर लोगों की राय बनती है, बदलती है, जिसमें चायवाला (जुनैद) भी शामिल होता है। हालांकि, वह नौकर जैसे पेश आता है, लेकिन चर्चा में बैठे लोगों से उसकी दोस्ती हो जाती है।

          सभी पात्रों की भूमिका बेमिसाल है। पागल फौजी को गांधी से नफरत है इसलिए वह नोट की जगह सिक्के इस्तेमाल करता है, क्योंकि सिक्कों में गांधी की फोटो नहीं होती। पत्रकार जो अब बड़ा लेखक बन गया है, उसकी दाढ़ी टैगोर से मिलती है इसलिए कोलकाता में लोग उसे टैगोर कहते हैं। चायवाला दिन भर संगीत बनाता और बजाता है। वह सिर्फ रात में चाय बेचता है। कैमरामैन चुपचाप सबको सुनता है और रिकॉर्ड करता जाता है।
फ़िल्म में लगभग सभी महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा की गई है और अलग-अलग लोगों के अलग-अलग वर्जन भी हैं। क्या सही है और क्या गलत ? इसका जवाब फ़िल्म नही देती है बल्कि आपको सोचने के लिए स्वतंत्र छोड़ देती है। स्क्रीन पर चलने वाला हर सवाल आपको भीतर तक झकझोर देता है मसलन- कश्मीर में आतंकवादी नहीं, मिलिटेंट होते हैगांधी का नॉन-वायलेंस किसी फौजी पर अप्लाई करें तो क्या होगा ? कश्मीर में फौजियों के रेप की बात हो या अयोध्या के बाबरी मस्जिद की, बांग्लादेश से होने वाली मानव तस्करी हो या कोलकाता में बनने वाला पॉर्न, सबको एक कमरे में समेट कर रख दिया है राम रमेश शर्मा ने। यह वाकई काबिले-तारीफ है।
पूरी कहानी का ज़िक्र करना सच्चे दर्शक के साथ बेइमानी होगी, इसलिए इस कहानी को यहीं छोड़ना होगा।
तकनीकी पहलुओं की बात करें तो रंगों का बेहतर संतुलन है। सभी विजुअल्स बहुत ही सुन्दर तरीके से फिल्माए गए हैं। कमरे का जो सेट फिल्माया गया है उसमें कोई भी चीज ऐसी नहीं है जिसका फ़िल्म में उपयोग न किया गया हो। बॉयोस्कोप से लेकर टूटा हुआ गमला तक, हर चीज का इस्तेमाल बखूबी किया गया है। पूरी कहानी में रक्तरंजित कालखंड की व्याख्या है, लेकिन विजुअल्स में कहीं भी खून नही दिखाया गया । कश्मीर की खूबसूरती को कई आयाम से दिखाया गया है। कुछ ऐसे सीन हैं जो शायद आप कभी न भूल पाएं जैसे- अलमारी की दराज में फौजी केके जिंदगीभर के कटे नाखून पड़े हैं। वह उनमें अपनी गन छिपाकर रखता है। गंदा सा बाथरूम जिसे फौजी लेखक को साफ-सुथरा बताता है। रेडियो का बेहतरीन इस्तेमाल किया है। रेडियों ने भी एक पात्र की तरह भूमिका निभाई है। अभी तक चाय पिलाने वाला नौकर जुनैद, लेखक और फौजी के सामने जमीन पर बैठता है। लेकिन जब वह शराब परोसता है तब तीनों दोस्तों की तरह कुर्सियों पर बैठकर आपबीती सुनाने लगते हैं।

फिल्म का एक संवाद है, किसी भी पश्चाताप के लिए पादरी की जरूरत नहीं होती है। इस फिल्म को देखने के लिए किसी सिनेमाघर की जरूरत नहीं है। यू-ट्यूब खोलिए, देख डालिए। अच्छी फिल्म है। 

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