इतिहास गवाह है कि आपसी कलह और ' अहं ब्रह्मास्मि ' की अनुभूति कई राजनीतिक पार्टियों को गर्त में ले गई है , लेकिन यूपी का लोकविमर्श इस बार कुछ अलग ही इशारा कर रहा है। 2012 के यूपी विधानसभा चुनाव में टीम अखिलेश ने जो कमाल दिखाया था , वह इस बार फीका होता नजर आ रहा है। वक्त के साथ आई इस आंधी ने कइयों को बेसहारा कर दिया। समाजवादी पार्टी की लाख बुराइयों के बावजूद अखिलेश के काम से जनता खुश थी। नए नेतृत्व ने बहुत कुछ नहीं , तो भी कुछ न कुछ सकारात्मक बदलाव जरूर किए हैं। लेकिन , अब साइकल को पंचर करने का श्रेय उन्हीं को दिया जाएगा , जिनकी देख-रेख में साइकिल बनी और खूब चली। साइकल दो पहियों (मुलायम और शिवपाल) की सवारी जरूर है , लेकिन इसे चलाने के लिए गद्दी पर एक ही व्यक्ति (अखिलेश) की जरूरत होती है। इसी गद्दी की रंजिश से साइकल डगामगा गई। उधर राहुल गांधी के लिए प्रशांत किशोर के अडवाइजरी बोर्ड ने भी कुछ नया कारनामा नहीं किया। खाट सभा ने कइयों की खटिया जरूर खड़ी की। खाट ने लोगों के दरवाजों पर जैसे ही दस्तक दी , अगल-बगल के लोग मिली-जुली प्रतिक्रिया के साथ उस खाट पर बैठे और चर्चा की। इस चर्चा ...
विवरण भला किसी का कहीं दिया जा सकता है? जैसा जिसका नज़रिया वैसा उसका विवरण। खैर अब जब लिखने की फार्मेल्टी करनी ही है तो लीजिए- पेशे से शिक्षक और दिल से "पत्रकार" ये थोड़ा डेडली मिश्रण जरूर है लेकिन चौकाने वाला भी नही। समसामयिक घटनाओं के बारे में मेरी निजी राय क्या है वो यहां उपलब्ध है। आप सभी के विचारों का स्वागत है। मेरे बारे मेें जानने के लिए सिर्फ इसे समझे- (open for all influence by none! )