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Showing posts from 2012

आखिर पहुंच ही गये महाराष्ट्र !

वर्धा विश्वविघालय की प्रवेश परीक्षा के लिए ही सही महाराष्ट्र  गमन हुआ, धुमक्कड़ विघार्थी मेरी बात को और भी अच्छे से  समझ रहे होगें, कि एक के दाम में दो काम। बात को आगे बताने  से पहले ये जानना अति आवश्यक है कि , बारह लोगो का समूह  एक साथ इस परीक्षा के लिए वर्घा रवाना हुआ था ।  फिर क्या नये लोग और नयी सोच, कुछ की पुरानी भी होगी तो मेरे बाप का क्या जाता है । वो उसके साथ खुश है और हम  अपनी के साथ। दोस्तों की मेहरबानी की वजह से सभी की कन्फर्म टिकट तो हो  गई, पर रेलवे की वही पुराना रोना  आघे उधर तो आघे इधर, कुछ चाह रहे थे कि सभी एक साथ बैठे तो कुछ इसी में खुश थे। जैसे तैसे रात का सफर सभी ने काट ही लिया । सुबह जब आँख खुली  तो हरा भरा महाराष्ट्र दिखाई  दिया। अपने खानदान का शायद मैं पहला बालक था जो महाराष्ट्र की धरती पर इस उमर में पांव  रख रहा था। वर्धा जाने के लिए हमने सेवाग्राम तक का सफर तो ट्रेन से तय किया फिर आटो स्टैण्ड पर महिला  साथियों की आटो चालको के साथ हाय हाय के बाद अंतत :  चल ही दिये।  सेवाग्रम में सभी जग

कभी कभी यूं ही....

*मजिंल की तलाश में शायद नींद ग़ायब होने को मज़बूर हैं.... मैं समझ सकता हूँ ! नींद मुझे नही आ रही, तो इसमें भला तेरा क्या कुसूर हैं... *अब है यही दुआ कि , पहचान सकू अपने आप को इस तरह... धने अँघेँरे में भी अक्स पहचान जाता हूँ , उस "शख्स" का जिस तरह... * हम हर रोज़ ये सोंच कर छोड़ देते है, कि प्यारा है.... वो हमारी इस मुहब्बत को हमारी गर्ज़ समझते हैं....   * हम सोचते है कि रूठ कर उनसे मुँह फुलांएगे ज़रा..... एक उनका ख़याल आता है और हम मुस्करा बैठते हैं....   * अब हर रात के कटने का इंतजार है... नींद को कैसे समझाऊ कि उनसे सपने में मिलने का वायदा है...   * अभी अभी ख़याल आया मेरे दिल में, कि अब किस मुँह से बात करु तुमसे !! तुम उधर मुँह फुला कर खुश हो , हम इधर मुँह फुला कर खुश हैं..  

निठल्लेपन का कारनामा !

1*     अब तुम्हारे लड़खड़ाने से क्या फ़ायदा...        जब हमने नशे में सम्भल कर चलना सीख लिया... 2*  मजिंल की तलाश में शायद नींद ग़ायब होने को मज़बूर हैं....     मैं समझ सकता हूँ !      नींद मुझे नही आ रही, तो इसमें भला तेरा क्या कुसूर हैं...   3*बड़ा ज़ालिम हैं यार मेरा, रोज़ सपने में आकर कहता हैं... कि चैन से सो जाना.....चैन से सो जाना....

एकांतवास और मैं....

रात तीन बजे का समय दिनाँक 14 / 1 / 2012 ! मैं अपनी बालकनी से धंधोर अंघेरे में एक हाथ में सुलगती बीड़ी और एक में चाय का प्याला , न जाने क्यो स्ट्रीट लाईट को ऐसे निहार रहा था । लखनऊ की ठंड़ , और हवा का यूँ बहना और मुझे छूकर निकलना बता ही नही सकता कैसा महसूस कर रहा था । चारो तरफ कोहरा , कुछ भी दिखाई नही दे रहा था सिवाएं जलती बीड़ी के और स्ट्रीट लाईट के, चाय के प्याले से निकलता धुआँ दोनो लईटो की चमक को कम कर रहा था , बम्पर सन्नाटा मेरे इस मज़े को दोगुना कर मुझे उत्साहित कर रहा था. { एकांतवास  -- अंश एक }                          गहरा सन्नाटा , और उसमें टिक टिक करती धड़ी की आवाज़, दोनो लाईटो के झगड़े को कुछ पल के लिए शांत करने ही वाली थी कि.... मैने महबूबा बीड़ी जी को होठों से लगा लिया , न जाने क्या सोच के मैने जैसे ही एक कस लिया , मानो महबूबा बीड़ी जी चहक उठी और अपने तेज जलने पर ईठलाने लगी ...कुछ क्षण के लिए मुझे भी एहसास हुआ कि... महबूबा बीड़ी वाकई स्ट्रीट लाईट से तेज सुलग रही है, और उसे इस बात का धमंड़ { अहंकार } भी है... मैं तो यही सोच के खुश हो रहा था कि  बिना खर्चे के मुझे लखनऊ