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एकांतवास और मैं....



रात तीन बजे का समय दिनाँक 14/1/2012 ! मैं अपनी बालकनी से धंधोर अंघेरे में एक हाथ में सुलगती बीड़ी और एक में चाय का प्याला , न जाने क्यो स्ट्रीट लाईट को ऐसे निहार रहा था । लखनऊ की ठंड़ , और हवा का यूँ बहना और मुझे छूकर निकलना बता ही नही सकता कैसा महसूस कर रहा था । चारो तरफ कोहरा , कुछ भी दिखाई नही दे रहा था सिवाएं जलती बीड़ी के और स्ट्रीट लाईट के, चाय के प्याले से निकलता धुआँ दोनो लईटो की चमक को कम कर रहा था , बम्पर सन्नाटा मेरे इस मज़े को दोगुना कर मुझे उत्साहित कर रहा था. { एकांतवास  -- अंश एक}
                         गहरा सन्नाटा , और उसमें टिक टिक करती धड़ी की आवाज़, दोनो लाईटो के झगड़े को कुछ पल के लिए शांत करने ही वाली थी कि.... मैने महबूबा बीड़ी जी को होठों से लगा लिया , न जाने क्या सोच के मैने जैसे ही एक कस लिया ,
मानो महबूबा बीड़ी जी चहक उठी और अपने तेज जलने पर ईठलाने लगी ...कुछ क्षण के लिए मुझे भी एहसास हुआ कि... महबूबा बीड़ी वाकई स्ट्रीट लाईट से तेज सुलग रही है, और उसे इस बात का धमंड़ {अहंकार} भी है... मैं तो यही सोच के खुश हो रहा था कि  बिना खर्चे के मुझे लखनऊ में ही शिमला का मज़ा  मिल रहा है, लेकिन सारी खुशी अपने आप गायब होने लगी जैसे मेरी नज़र चाय के प्याले की ओर गयी प्याला खाली होने को बेताब हो रहा था , इतने झटको के बाद भी ऊपर वाले को मुझ पर तरस नही आ रही था कि मुझे अपने हाथ के पास कुछ जलन सी महसूस हुई, और महबूबा बीड़ी न चाहते हुए भी मुझे छोड़ने को तैयार हो गयी थी. { एकांतवास  -- अंश दो }
अगला दिन दिनाँक 16/1/2012 , तीसरी मंजिल का मेरा कमरा जिसमें मैने आज लगभग तीन महीने बाद कदम रखा है.. इसकी एक बड़ी खास व्यावस्था है,  यह  ग्रीष्म काल में अफ्रीका और शीत ऋतु में यह काश्मीर हो जाता है बाकी आप खुद ही समझदार है । और जो सबसे महत्वपूर्ण बात है वह यह कि मेरी गैरमौजूदगी में इस कमरे में धर का कोई सदस्य नही जाता है । रात्रि के भोजन के बाद मैने अफ्रीका और काश्मीर मतलब अपने कमरे की ओर प्रस्थान किया ... आज इतने दिनो के बाद कमरे का दरवाजा खोला तो एक अजीब सी महक और दीवारो पर मकड़जाल मानो मेरा ही इंतजार कर रहे थे, लेकिन तब भी सबकुछ अच्छा लग रहा था कुछ देर कमरे में बैठने के बाद मैं फिर से बालकनी में आकर बैठ गया..
 रात के दो बज गए , सुलगती बीड़ी और वो सन्नाटा , एक हाथ में बीड़ी और एक मे कलम ..... सुलगता धुआँ अब धीरे धीरे नीचे की ओर से मेरे सर से होकर ऊपर की ओर जा रहा था
लखनऊ की ठण्ड़ और मेरी बालकनी। हाथ पैर सुन्न हुए जा रहे है ... और स्ट्रीट लाईट भी आज धोखा देने के मूड़ मे लग रही है तभी बुझ बुझ कर जल रही है । महबूबा बीड़ी का धमण्ड़ आज सातवे आसमान पर है जैसे उसे होंठों से लगाकर खींचता हूँ वो चहक कर जल उठती है , रोड से गुजरते ट्रको की आवाज मेरे कानो से होकर जा रही है , आज तो मेरे जरा सा हिलने मात्र से कुर्सी भी ग़जब आवाज कर रही है  काश इतना ही काफी होता इस सन्नाटे में ....
धना कोहरा हवा के साथ बहकर मुझे चारो ओर से धेर रहा था और उसके सिपाही की भाँति अँधेरा उसका साथ दे रहा था। सच कहूँ तो गहरा सन्नाटा मुझ पर अपना प्रभाव छोड़ने में सफल हो गया था तभी कुर्सी छोड़ खड़ा हुआ और टयूबलाइट जलायी..... 
              लाईट के जलते ही मेरे आस पास उजाला हो गया बाकी दूर दूर तक अँधेरा ही अँधेरा था लाईट के जलते ही महबूबा बीड़ी की चमक कम पड़ गयी और प्रतीत हो रहा है कि.. चहकती चमकती बीड़ी के अहँकार का फ्यूज चालीस वाँट की टयूबलाईट ने उड़ा दिया ...
सोने का मन हो रहा है लेकिन नीँद अभी भी मीलों दूर है , महबूबा बीड़ी का अंतिम समय निकट है कुछ ही देर में उसका अस्तित्व जल के ख़ाक होने वाला है , सोचा क्यों न आखिरी समय में उसकी मुलाकात उसकी सौतन से कराई जाए... तीन माचिस की तीलीयाँ फूँकने के बाद कहीं जाकर  और एक बीड़ी पुनः जला ली .........
                एक तरफ ठण्ड़ी हवा, कोहरा और गहरा सन्नाटा !  वहीं  दूसरी तरफ  मैं , बालकनी , कुर्सी और सुलगती बीड़ी !  सबका संगम था या समागम , मैं स्वंय भी समझ नही पा रहा था और न ही समझने में कोई रूचि दिखा रहा था ।
                   

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