Skip to main content

चीन को समझना अब जरूरी नहीं, मजबूरी है।


पिछले डेढ़ महीने से चीन का भारत और भूटान के साथ जो गतिरोध दिख रहा है, वह कई दिशाओं में होने वाले विनाश की तरफ इशारा कर रहा है। मौजूदा वक्त में पूरे एशिया में सिर्फ भारत ही है, जो चीन की आंखों में आंखें डालकर खड़ा हो सकता है। उधर चीन भी लगातार अपनी सैन्य ताकत बढ़ा रहा है। पिछले एक दशक में ड्रैगन ने समुद्री क्षेत्र में अपना दखल मजबूत किया है। पाकिस्तान के ग्वादर पोर्ट की आर्थिक मदद करके चीन क्या फायदा उठाना चाहता है, यह किसी से छिपा नहीं है। कश्मीर से बलूचिस्तान तक जो हालात हैं, उससे पाकिस्तान की सेहत पर कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ रहा है। चीन भी पाक के साथ मिलकर इसका फायदा उठाने का कोई मौका नहीं छोड़ रहा है।



एक तरफ चीन के रक्षा मंत्रालय ने दावा किया है, 'पहाड़ हिलाना आसान है, लेकिन चीनी सेना को नहीं।' दूसरी तरफ CAG की उस रिपोर्ट ने उग्र-राष्ट्रवाद की समर्थक सरकार की हवा निकाल दी, जिसमें कहा गया कि भारतीय सेना के पास सिर्फ 10 दिन लड़ने लायक गोला-बारूद है। बीजेपी नेता भले रिपोर्ट के गलत समय पर जारी होने की बात कह रहे हों, पर सरकार से उम्मीद की जा सकती है कि वह गोला-बारूद का भंडार भरने पर ध्यान देगी।


पड़ोसी राष्ट्रों के नज़रिए पर गौर करें, तो पाएंगे कि सत्ता-परिवर्तन और मधेषी आंदोलन के बाद भारत-नेपाल के संबंध पहले जितने अच्छे नहीं रह गए हैं। पाकिस्तान की तो बात ही छोड़ दीजिए, युद्ध जैसे मामलों में बांग्लादेश से भी स्थिर समर्थन की उम्मीद नहीं की जा सकती। श्रीलंका को लुभाने का प्रयास चीन पहले ही कर चुका है। उधर भूटान को लेकर चीन इसलिए भी आश्वस्त है, क्योंकि भूटान अकेले कोई बड़ा अंतर पैदा नहीं कर सकता।



भारतीय सेना भूटान के डोकलाम से चीनी सेना को खदेड़ चुकी है। यही वजह है कि चीन की बौखलाहट रिस-रिसकर बाहर आ रही है। पीपल्स लिबरेशन आर्मी का पीछे हटना चीनी मीडिया के लिए हजम न होने वाले प्रहार की तरह है। चीन में मौजूद भारतीय राजनयिक बताते हैं कि पिछले तीन-चार दशकों में ऐसा पहली बार हो रहा है, जब चीनी मीडिया में भारत-विरोधी खबरें परोसी जा रही हैं। उधर अमेरिका और इजरायल से भारत की करीबी चीन को कूटनीतिक स्तर पर उकसा रही है।



विदेश नीति पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अति-सक्रियता ने उन्हें दोराहे पर जरूर खड़ा कर दिया है, लेकिन इसमें कोई दोराय नहीं कि वह हीरो की भूमिका में हैं। जहां चीन भारतीय सीमाओं के पास युद्धाभ्यास कर रहा है, वहीं भारत सियाचिन जैसे इलाकों में अमेरिकी सैनिकों को युद्धाभ्यास कराता है। कोई खुद को कमजोर या न्यूट्रल दिखाने को तैयार नहीं है। हालांकि, देश का एक बड़ा वर्ग जरूर इस बात को समझ रहा है कि देश की GDP कमजोर हालत में है। ऐसे में युद्ध भारत को बहुत महंगा पड़ेगा। वहीं पिछले सबक यही बताते हैं कि चीन भरोसे के लायक नहीं है।



1962 के युद्ध में भी चीनी मीडिया ने अपने देश की जीत का ऐलान कर दिया था, जबकि सीमा से सैनिक पहले चीन ने हटाए थे। यहां हमें सुषमा स्वराज की टिप्पणी पर भी गौर करना चाहिए, जिसमें उन्होंने कहा, 'भारत, चीन और भूटान आपस में बात कर सकते हैं, लेकिन पहले सभी देशों को अपनी सेनाएं पीछे हटानी चाहिए।' इस साल के ब्रिक्स सम्मेलन में भारत के कई गणमान्य लोगों को इस विषय पर बात करने का अवसर तलाशना होगा। भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल भी इस ब्रिक्स सम्मेलन में शामिल होंगे। देखना रोचक होगा कि रणनीतिक मामलों में देश को कई बार जीत दिलाने वाले डोवाल चीन के लिए अपने तरकश से कौन सा तीर निकालेंगे।

Comments

Popular posts from this blog

यूपी चुनाव स्पेशल- अखिलेश मतलब टीपू ही सपा के नए सुल्तान।

विधानसभा चुनाव 2017 के लिए सभी राजनीतिक पार्टियां दल-बल के साथ चुनावी रणभूमि में कूद चुकी हैं। दंगल से प्रभावित सभी पार्टियों के पास अपने-अपने पैंतरे और दांव-पेंच हैं। दल-बल और बाहुबल चुनाव में ख़ास रहता है, लेकिन यूपी में जाति को चुनाव से अलग करके नहीं देखा जा सकता।  इस बार धनबल को नरेंद्र मोदी के नोटबंदी के फैसले ने काफी हद तक प्रभावित किया है। चुनावी रैलियों में इसका असर साफ दिखाई देने भी लगा है। यूपी में बसपा के खाते में आने वाले चंदे को लोग कालाधन बता रहे हैं। सपा में कुनबे के दंगल में सब अपने दांव को सही बता रहे हैं।  बीजेपी चेहरा-विहीन चुनाव लड़ने की तैयारी में है। सपा के टिकट उम्मीदवारों की लिस्ट ने चुनावी मौसम में आग में घी डालने का काम किया था। इस आग में खुद सपा भी जलेगी, ये उम्मीद किसी को नहीं थी। हाल ही में कुनबे को पारिवारिक दंगल से मुक्ति मिली थी, लेकिन हर राजनीतिक पार्टी की तरह सपा भी अंतःकलह का शिकार हो गई। आग की प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि या तो ख़ाक कर देगी या सोने को कुंदन बना देगी। अब अखिलेश कुंदन बनकर उभरेंगे या ख़ाक बनकर, यह आगामी चुनाव में पता चल जाएगा। इस बात क

एकांतवास और मैं....

रात तीन बजे का समय दिनाँक 14 / 1 / 2012 ! मैं अपनी बालकनी से धंधोर अंघेरे में एक हाथ में सुलगती बीड़ी और एक में चाय का प्याला , न जाने क्यो स्ट्रीट लाईट को ऐसे निहार रहा था । लखनऊ की ठंड़ , और हवा का यूँ बहना और मुझे छूकर निकलना बता ही नही सकता कैसा महसूस कर रहा था । चारो तरफ कोहरा , कुछ भी दिखाई नही दे रहा था सिवाएं जलती बीड़ी के और स्ट्रीट लाईट के, चाय के प्याले से निकलता धुआँ दोनो लईटो की चमक को कम कर रहा था , बम्पर सन्नाटा मेरे इस मज़े को दोगुना कर मुझे उत्साहित कर रहा था. { एकांतवास  -- अंश एक }                          गहरा सन्नाटा , और उसमें टिक टिक करती धड़ी की आवाज़, दोनो लाईटो के झगड़े को कुछ पल के लिए शांत करने ही वाली थी कि.... मैने महबूबा बीड़ी जी को होठों से लगा लिया , न जाने क्या सोच के मैने जैसे ही एक कस लिया , मानो महबूबा बीड़ी जी चहक उठी और अपने तेज जलने पर ईठलाने लगी ...कुछ क्षण के लिए मुझे भी एहसास हुआ कि... महबूबा बीड़ी वाकई स्ट्रीट लाईट से तेज सुलग रही है, और उसे इस बात का धमंड़ { अहंकार } भी है... मैं तो यही सोच के खुश हो रहा था कि  बिना खर्चे के मुझे लखनऊ