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पूरे देश को खाना खिलाने वाला खुद घास और चूहे खाकर पेशाब पी रहा है


पिछले 40 दिनों से लगभग हर अखबार की खाली जगह भरने और हर चैनल का बुलेटिन पूरा करने के लिए एक ही खबर का इस्तेमाल किया जा रहा है। दिल्ली में तमिलनाडु के किसानों का विरोध प्रदर्शन। अपनी मांग रखने के लिए सभी गांधीवादी तरीके अपना चुके ये किसान आखिर में अपना पेशाब पीने को मजबूर हो गए, लेकिन लुटियंस दिल्ली में बैठने वाले सरकार के किसी प्रतिनिधि के कानों तक इनकी आवाज नहीं पहुंची। मल खाने तक की धमकी दे चुके ये किसान आज अगर बंदूक उठा लें, तो नक्सलवाद का ठप्पा इन्हें व्यवस्था से बाहर कर देगा। डर इस बात का है कि डिजिटल इंडिया के निर्माण की प्रक्रिया में हम उस धड़े की उपेक्षा कर रहे हैं, जो जीवन की सबसे बेसिक जरूरत को पूरा करने वाली इकाई है।


एक तरफ उत्तर प्रदेश के किसानों का कर्ज माफ किया जाता है, वहीं दूसरी तरफ तमिलनाडु के किसानों को मानव-मल खाने की धमकी देनी पड़ती है। कल तक सत्ता तक पहुंचने का जरिया रहे ये किसान आज सत्ता की अनुपलब्धता का श्राप झेल रहे हैं।


एक आम भारतीय को न तो अजान की आवाज से तकलीफ होती है और न मंदिर के घंटे से, लेकिन अपने अन्नदाता की ऐसी दुर्गति जरूर उसके मन को कचोटती है। तमिलनाडु के किसान सूखे की मार झेल रहे हैं। बिलाशक हमारे देश में किसी भी परेशानी का राजनीतिकरण हो सकता है, लेकिन मौजूदा हालात सरकार की कमजोर इच्छाशक्ति की तरफ इशारा कर रहे हैं।


एक तरफ माल्या जैसे व्यापारी हजारों करोड़ का कर्ज डकारने के बावजूद चिल्ड बियर पी रहा है, दूसरी तरफ हमारे किसान पानी मांगते हुए पेशाब पी रहे हैं। अर्थ डे मनाते हुए ये तस्वीरें देखना हमारी खोखली विकास यात्रा को दर्शाता है।


अपने 'मन की बात' कहने और दूसरे के 'मन की बात' सुनने में बड़ा फर्क है। अतुलनीय जटिलताओं से भरे भारतीय समाज को 'जय जवान जय किसान' के नारे में गहरा विश्वास है। किसानों के आंदोलन को बल देने के लिए छात्र संगठन भी आगे आ रहे हैं। मौजूदा हालात तो यही दर्शा रहे हैं जाट आंदोलन में जब पटरियां उखाड़ी जाती हैं, तो आम जनता और व्यवसाय के प्रभावित होने की वजह से उनकी मांगें तुरंत पूरी कर दी जाती हैं। उधर तमिलनाडु के किसान खुद को यातना देने के सिवाय कर ही क्या रहे हैं।

हम और आप, हम सभी को किसानों के साथ खड़े होने की जरूरत है। मजबूत तंत्र में ही स्वस्थ लोकतंत्र विकसित किया जा सकता है। आधार कमजोर करके समाज की कोई इकाई मजबूत नहीं की जा सकती। कहीं ऐसा न हो कि आने वाले डिजिटल इंडिया में अर्थ डे की तरह हमें किसान दिवस भी मनाना पड़े। 

अमित कुमार सिंह
असिस्टेंट प्रोफेसर
टेक्नो ग्रुफ ऑफ इंस्टीट्यूसंश
लखनऊ

Comments

  1. 'किसान' और 'जवान' सीढ़ी बन चुके हैं सत्ता तक पहुंचने के लिए।

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    1. क्या किया जा सकता है, विरोध और फिर गंभीर विरोध आखिर में हथियार ही उठाना पड़ेगा ....

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