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आखिर पहुंच ही गये महाराष्ट्र !


वर्धा विश्वविघालय की प्रवेश परीक्षा के लिए ही सही महाराष्ट्र 

गमन हुआ, धुमक्कड़ विघार्थी मेरी बात को और भी अच्छे से 

समझ रहे होगें, कि एक के दाम में दो काम। बात को आगे बताने 

से पहले ये जानना अति आवश्यक है कि , बारह लोगो का समूह 

एक साथ इस परीक्षा के लिए वर्घा रवाना हुआ था । 





फिर क्या नये लोग और नयी सोच, कुछ की पुरानी भी होगी तो

मेरे बाप का क्या जाता है । वो उसके साथ खुश है और हम 

अपनी के साथ।




दोस्तों की मेहरबानी की वजह से सभी की कन्फर्म टिकट तो हो गई, पर रेलवे की वही पुराना रोना 

आघे उधर तो आघे इधर, कुछ चाह रहे थे कि सभी एक साथ बैठे तो कुछ इसी में खुश थे। जैसे

तैसे रात का सफर सभी ने काट ही लिया । सुबह जब आँख खुली तो हरा भरा महाराष्ट्र दिखाई 

दिया। अपने खानदान का शायद मैं पहला बालक था जो महाराष्ट्र की धरती पर इस उमर में पांव

 रख रहा था।





वर्धा जाने के लिए हमने सेवाग्राम तक का सफर तो ट्रेन से तय किया फिर आटो स्टैण्ड पर महिला

 साथियों की आटो चालको के साथ हाय हाय के बाद अंतत: चल ही दिये।  सेवाग्रम में सभी जगह 

सब कुछ हिन्दी में लिखा था। दीवार पर हिन्दी के विज्ञापन, घरो की नेम प्लेट भी हिन्दी में 

अधिकांशतसभी चीजे हिन्दी में ही लिखी थी।सेवाग्राम के स्टेशन पर साफ सफाई का विशेष ध्यान 

रखा जाता है औऱ बाहर निकल के देखा तो लगा कि किसी हिल स्टेशन आ गये हो, हलांकि 

बर्फ को नजरअदांज कर दिया जाए तो वाकई वह हिल स्टेशन से कम भी नही था।








जैसे तैसे स्टेशन से बाहर निकले तो फोटोग्राफी का दौर शुरू हो गया फिर क्या था ऐसे ऐसे पोज़ 

दिये गये कि बड़े बड़े मॉडल शर्मा जाएं। एकाध आटो रिक्शा वालो ने नया नया जान कर ठगने की 

कोशिश मात्र की कि हमारी महिला फौज के सामने बिचारो ने हाथ ही खड़े कर दिये। कुछ देर पैदल 

चलने के बाद सबकी हालत पस्त हो चुकी थी तो सभी ने आटोरिक्शा करने का मन बनाया फिर 

क्या था सभी अपने बोरियाबिस्तर के साथ चढ़ गये।






किस्मत का धनी तो मैं भी बचपन से हूँ इसलिए आटो वाले भइया ने गद्दी वाली सीटे महिलाओं को 

सौंप दी और हमे बैठाया लोहे की रॉड पर, बाकि आप समझदार है पहाड़ी रास्तों के बारे में जो 

ठोकरे लग रही थी वह भी नया अनुभव था। गलियों और चौराहों से ठोकरे खा कर आखिर अब 

पहुंच गए वर्धा ।






            आटो वाले भइया को शुक्रिया बोल कर हमारी सेना ने मुख्यद्वार में प्रवेश किया। 

फिर महिला आरक्षण का एक नायाब उदाहरण दिखा महिला हॉस्टल मुख्य द्वार के पास में और 

ब्वायज हॉस्टल कैंपस के बाहर, कड़ी दोपहर और तीन किलोमीटर की दूरी वो भी पैदल हवा चल 

जरूर नही रही थी पर कइयो की हवा निकल जरूर गयी थी । जैसे तैसे टाइगर हिल रूपी कैंपस 

पार हुआ, और हाईवे क्रॉस करने के बाद हास्टल में प्रवेश किया।  बिरसा मुड़ा और गोरख पाड़ेय 

नाम के दो हॉस्टल आस पास ही बने है विशाल कक्ष और शानदार बाथरूम जो कहानी के हीरो 

मनीष यादव को बहुत पसन्द आया। आस पास सिर्फ जंगल,वीराना ही था। जो भी रौनक थी सब 

आस पास ही बिखरी थी, कैंपस के बाहर हॉस्टल का काँसेप्ट जब पूछा तो पता चला कि दारू पी के 

गदर करने वाले हाइवे पर ट्रक से कुचल जाते है और कैंपस की बालिकाएं सुरक्षित रहती है। गाँधी 

जी की नगरी जरूर है पर चिकन और दारू का एक्सट्रा स्टॉक हॉस्टल के रौबदार सीनियरो के पास 

चौबीस घंटे उपलब्ध रहता हैं। {भाग एक}







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