विधानसभा चुनाव 2017 के लिए सभी राजनीतिक पार्टियां दल-बल के साथ चुनावी रणभूमि में कूद चुकी हैं। दंगल से प्रभावित सभी पार्टियों के पास अपने-अपने पैंतरे और दांव-पेंच हैं। दल-बल और बाहुबल चुनाव में ख़ास रहता है, लेकिन यूपी में जाति को चुनाव से अलग करके नहीं देखा जा सकता। इस बार धनबल को नरेंद्र मोदी के नोटबंदी के फैसले ने काफी हद तक प्रभावित किया है। चुनावी रैलियों में इसका असर साफ दिखाई देने भी लगा है। यूपी में बसपा के खाते में आने वाले चंदे को लोग कालाधन बता रहे हैं। सपा में कुनबे के दंगल में सब अपने दांव को सही बता रहे हैं। बीजेपी चेहरा-विहीन चुनाव लड़ने की तैयारी में है। सपा के टिकट उम्मीदवारों की लिस्ट ने चुनावी मौसम में आग में घी डालने का काम किया था। इस आग में खुद सपा भी जलेगी, ये उम्मीद किसी को नहीं थी। हाल ही में कुनबे को पारिवारिक दंगल से मुक्ति मिली थी, लेकिन हर राजनीतिक पार्टी की तरह सपा भी अंतःकलह का शिकार हो गई। आग की प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि या तो ख़ाक कर देगी या सोने को कुंदन बना देगी। अब अखिलेश कुंदन बनकर उभरेंगे या ख़ाक बनकर, यह आगामी चुनाव में पता चल जाएगा।...
विवरण भला किसी का कहीं दिया जा सकता है? जैसा जिसका नज़रिया वैसा उसका विवरण। खैर अब जब लिखने की फार्मेल्टी करनी ही है तो लीजिए- पेशे से शिक्षक और दिल से "पत्रकार" ये थोड़ा डेडली मिश्रण जरूर है लेकिन चौकाने वाला भी नही। समसामयिक घटनाओं के बारे में मेरी निजी राय क्या है वो यहां उपलब्ध है। आप सभी के विचारों का स्वागत है। मेरे बारे मेें जानने के लिए सिर्फ इसे समझे- (open for all influence by none! )