निशाने पर बिहार
मुंबई किसकी है? मराठी मानुष या सभी भारतीयों की? यह यक्ष प्रश्न एक बार फिर मराठी मानुष एवं देश की जनता के बीच घूमने लगा है। इसके साथ ही पिछले कुछ समय से ठंड़ी पड़ी भारतीय राजनीति को फिर गर्माहट मिल गयी है। इस प्रश्न को हवा देने का कार्य किया महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने। चव्हाण ने राज्य में मराठी जानने वालों को ही टैक्सी का परमिट दिए जाने की वकालत की थी। हांलाकि वह इसे अमलीजामा नहीं पहना सके परंतु महाराष्ट्र में अपनी चिर प्रतिद्वंदी शिवसेना के हाथों अपनी पीठ थपथपाने में जरुर सफल रहे। इसके बाद तो शिवसेना और मनसे ने अपना पुराना राग अलापते हुए महाराष्ट्र में रह रहे उत्तर भारतीयों पर तीखे प्रहार फिर शुरू कर दिए।
इन सब घटनाओं के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपनी लंबी चुप्पी तोड़ते हुए सीधे तौर पर शिवसेना को यह नसीहत दे डाली कि मुंबई पर जितना अधिकार मराठी मानुष का उतना ही अन्य प्रांतों में रह रहे भारतीयों का भी है इसलिए बेहतर होगा कि मराठी मानुष के नाम पर क्षेत्रीयता की अपनी घिनौनी राजनीति बंद करे। संघ प्रमुख के इस बयान के बाद भाजपा के नवनिर्वाचित अध्यक्ष नितिन गड़करी ने भी संघ प्रमुख के बयान को दोहराते हुए समर्थन कर डाला इसके बाद तो भाजपा के वरिष्ठ नेता एवं लोकसभा सांसद मुरली मनोहर जोशी ने शिवसेना से रिश्ता तोड़ने तक की बात कह दी। इन सब बयानों के बीच कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने भी मनसे और शिवसेना पर प्रहार करते हुए यहां तक कह डाला कि 26 नबंबर को मुंबई पर हुए आतंकी हमले से निपटने वाले एनएसजी के जवान उत्तर भारतीय व अन्य प्रांत के थे। हालांकि ऐसी टिप्पणी करके राहुल गांधी ने महाराष्ट्र की जनता की आत्मीयता पर न केवल प्रहार किया बल्कि उनकी राष्ट्रीयता पर भी प्रश्न चिन्ह लगा दिया जिन्होंने महाराष्ट्र और देश में उनकी सरकार बनाने में अहम योगदान दिया था। बेहतर तो यह होता कि उनकी पार्टी के मुख्यमंत्री द्वारा मराठी भाषी लोगों को टैक्सी का परमिट दिए जाने की वकालत किए जाने पर कम से कम आलोचना तो करनी चाहिए थी।
आखिर ऐसी क्या जरुरत आ पड़ी कि भाजपा को अपने पुराने सहयोगी शिवसेना से रिश्ते खत्म करने तक की बात कहनी पड़ गयी एवं कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने भी मराठी मानुष का नारा लगाने वालों के खिलाफ शंखनाद कर दिया आखिर ये संवेदनशीलता भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी पार्टियों में कहां से आ गयी?
जाहिर है ये संवेदनशीलता ऐसे ही प्रकट नहीं हो गई। मामला बिल्कुल स्पष्ट है महाराष्ट्र में हाल ही में विधानसभा चुनाव समाप्त हुए है और आने वाले तीन-चार वर्षों में
चुनाव की संभावना बिल्कुल नहीं है। इसलिए भाजपा को अब शिवसेना की जरुरत नहीं लगती और दूसरी तरफ इस वर्ष के अंत में बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं इसके लिए ये दोनों प्रमुख दल उत्तर भारतीयों पर हो रहे हमलों को चुनावी मुद्दे के रुप में भुनाने की कोशिश करेंगे जिसकी पृष्ठभूमि बनाने का कार्य शुरु हो चुका है।
अब यह देखना दिलचस्प होगा कि आगामी बिहार विधानसभा चुनावों में बिजली, सड़क, पानी, शिक्षा, रोजगार एवं स्वास्थ्य जैसे मूलभूल मुद्दे अपनी जगह पा सकेंगे या फिर ओछी राजनीति व विकृत मानसिकता की भेंट चढ़ जायेंगे।
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