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कला सिनेमा का एक और बेहतर नही अतुलनीय उदाहरण "काफ़िरों की नमाज़"


राम रमेश शर्मा की बहुत ही शानदार कला फिल्म (Art movie), बल्कि इसे सेंसटिव सिनेमा कहना बेहतर
होगा, अगर दिल की धड़कन को महसूस करना चाहता है, एकांत चाहते है, या एकांत में कुछ रचनात्मक करना चाहते है, तो बात मानिये इससे बेहतर विकल्प शायद दोबारा न मिले। फिल्म बिल्कुल फिल्म जैसी है टेक्निकल पहलू हो या कलात्मक आप किसी को भी भूलना नही चाहेंगे। बीच बीच में नाखून से खरोचने वाले संवाद, अचानक वैली ऑफ फ्लॉवर से वैली ऑफ हेल तक का सफर करा देते है वो भी मुफ्त में, पूरी फिल्म में रक्तरंजित क्रांतिकाल खंडों का वर्णन है लेकिन खून के विजुअल पूरी फिल्म में नहीं दिखेंगे। और जहां दिखेंगे वहा एनीमेटेड, विजुअल के साथ रेडियों पूरी तरह से माइंड ऑफ थियेटर फील कराता जाएगा। दोनो के संघर्ष में रेडियो की उपयोगिता और विजुअल में रेडियो का इस्तेमाल वाकई देखने लायक है। शुरूआती दौर में कश्मीर के बेहतर दृश्य सामने आएंगे जो कि फितूर फिल्म से मिलते जुलते है। कश्मीर को स्वर्ग और कश्मीर में जिस लोकेशन का इस्तेमाल किया गया है वह देखने लायक है। सीढ़ियों से भरा एक गंदा हॉल और रंगों (सीपिया मोड) का समान संयोजन फिल्म की खूबसूरती को और निखारता चला जाता है। कुल मिलाकर पैसा वसूल फिल्म है। इसे न देखने वाले लोग सिनेमेटिक क्राइम करने जैसा कुछ महसूस करेंगे। क्योंकि जितनी मेरी फिल्म की समझ है शिप ऑफ थीसिस के बाद यह दूसरी फिल्म है जो कि भीतर जाकर कहीं गहरे में सिमट जाती है। पात्र सिर्फ चार है लेकिन हॉलीवुड की 300 की सेना की तरह है। हर पात्र का चयन उसकी बोली,भाषा और वेशभूषा बिल्कुल फिल्म के साथ सहज होती चली जाती है।

फिल्म देखने के लिए यहां क्लिक करें। क्योंकि सेंसर बोर्ड ने इसे किसी भी तरह का सर्टिफिकेट देने से मना कर दिया है।
https://www.youtube.com/watch?v=X2oTnS2oLoI&feature=youtu.be

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